इसे नरेंद्र मोदी की कुशल 'व्यावहारिक राजनीति' कहें या नाटक, पर वे हर उस मौक़े का इस्तेमाल करते हैं जो भावनात्मक रूप से फ़ायदा पहुँचाता है.
निशाने पर नेहरू-गांधी 'परिवार' हो तो वे उसे ख़ास अहमियत देते हैं. रविवार 21 अक्तूबर को लालकिले से तिरंगा फहराकर उन्होंने कई निशानों पर तीर चलाए हैं.
'आज़ाद हिन्द फ़ौज सरकार' की 75वीं जयंती के मौक़े पर 21 अक्टूबर को लालकिले में हुए समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति की योजना शायद अचानक बनी.
वरना ये लंबी योजना भी हो सकती थी. ट्विटर पर एक वीडियो संदेश में उन्होंने कहा था कि 'मैं इस समारोह में शामिल होऊँगा.
कांग्रेस पर वार
इस ध्वजारोहण समारोह में पीएम मोदी ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के योगदान को याद करने में जितने शब्दों का इस्तेमाल किया, उनसे कहीं कम शब्द उन्होंने कांग्रेस पर वार करने में लगाए, पर जो भी कहा वो काफ़ी साबित हुआ.
उन्होंने कहा, "एक परिवार की ख़ातिर देश के अनेक सपूतों के योगदान को भुलाया गया. चाहे सरदार पटेल हों या बाबा साहब आम्बेडकर. नेताजी के योगदान को भी भुलाने की कोशिश हुई. आज़ादी के बाद अगर देश को पटेल और बोस का नेतृत्व मिलता तो बात ही कुछ और होती."
अभिषेक मनु सिंघवी ने हालांकि बाद में कांग्रेस की तरफ़ से सफ़ाई पेश की, पर मोदी का काम हो गया.
मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने गांधी, आम्बेडकर, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोकप्रिय नेताओं को पहले ही अंगीकार कर लिया है. अब आज़ाद हिन्द फ़ौज की टोपी पहनी है.
भाजपा को क्या मिलेगा?
ये 'सॉफ़्ट राजनीति' है. नेताजी सुभाष कोई राजनीतिक 'निर्वाचन क्षेत्र या इलाक़ा' नहीं हैं.
न उनके नाम से किसी वोट बैंक का दरवाज़ा खुलता है. हाँ, देशप्रेम की भावना ज़रूर उनके नाम से पैदा होती है.
भगत सिंह के विचार भाजपा के विचारों से मेल नहीं खाते, पर भाजपा उनका नाम भी लेती है.
इस बहाने मोदी ये बताने की कोशिश करते हैं कि जिन्हें मिलना चाहिए था, उन्हें श्रेय नहीं मिला.
राष्ट्रीय आंदोलन की कमाई कोई और खा गया. अभी वे 30 दिसंबर को पोर्ट ब्लेयर (अंडमान और निकोबार) भी जाएंगे.
पोर्ट ब्लेयर में 75 साल पहले 30 दिसंबर को ही 1943 में पहली बार भारतीय ज़मीन पर सबसे पहले सुभाष चंद्र बोस ने आज़ाद हिन्द फ़ौज का तिरंगा फहराया था.
भावनाओं की खेती
इस महीने के अंत में 31 अक्तूबर को वे गुजरात में सरदार पटेल के 'स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी' का अनावरण करने जा रहे हैं.
इसमें दो राय नहीं कि मोदी ने उन रूपकों, प्रतीकों और भावनाओं को भुनाया है जो जनता के मन को छूते हैं.
भावनाओं की ये राजनीति मोदी की देन नहीं है. ये पहले से चली आई है. इसके रंग-रूप अलग हैं. अलबत्ता मोदी ने इसे निखारा ज़रूर है.
वे जब कुछ उत्तेजक बोलते हैं, तो जवाब में नकारात्मक प्रतिक्रियाएं आती हैं. मोदी उनका भी अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेते हैं.
पिछले चार साल से उन्होंने 21 अक्तूबर को लालकिले पर ध्वजारोहण की बात नहीं सोची.
संयोग है कि ये उस परिघटना का 75वाँ साल है. और चुनाव भी क़रीब हैं.
तारीख़ों के नए निहितार्थ खोजना भी मोदी-कला है. पिछले साल 9 अगस्त 'क्रांति दिवस' को उन्होंने 'संकल्प दिवस' मनाया.
इस तरह एक कांग्रेसी तारीख़ को उन्होंने छीना. ये कहकर कि वो तो राष्ट्रीय आंदोलन था.
कांग्रेसी मुहावरों को छीना
अगस्त क्रांति के 75 साल पूरे होने पर बीजेपी सरकार ने जिस स्तर का आयोजन किया, उसकी उम्मीद कांग्रेस ने नहीं की होगी.
मोदी ने साल 1942 से 1947 को ही नहीं जोड़ा है, उन्होंने साल 2017 से 2022 को भी जोड़ दिया है. यानी उनकी योजनाएं 2019 के आगे जा रही हैं.
पिछले चार साल में उन्होंने कांग्रेस के तमाम मुहावरों को भी छीना है.
उनके 'स्वच्छ भारत अभियान' का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है.
गांधी के सत्याग्रह की तर्ज पर मोदी 'स्वच्छाग्रह' शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं.
कहा जा सकता है कि ये सब नाटक है, राजनीति है. पर राजनीति में किसने नाटक नहीं खेला?
बात इतनी सी है कि कौन कितना बढ़िया नाटक खेलता है.