किरकिरा रही है आत्मा धरती की
बरस कर लौट गए बादल क्षितिज की छांह में
यहां पसर गया नमक चहुंओर
तन मन नयन से रिस-रिस कर
अभी-अभी तो चढ़ा था वैशाख
उम्मीदें नाच रही थीं खेत से खलिहान तक
अब चारों ओर नमक ही नमक है
किरकिरा रही है आत्मा धरती की।
धोखा एक अदृश्य घुन है
असफलताएं तोड़ती हैं आदमी को कुछ समय के लिए
पर धोखे तोड़ देते हैं बाहर भीतर सब कुछ
असफलताओं से उबर जाता है आदमी
एक न एक दिन मिल ही जाती है
सफलता की कोई पुष्प वाटिका
पर धोखे का अंधेरा
गहरा होता है किसी भी अंधरे से
धोखा एक अदृश्य घुन है
जो पलपल चाटता है विश्वास!
किसी दिन मलय समीर की तरह
कहां के लिए चले थे
कहां पहुंचे!
पलट कर देखा
दूर कहीं धुंधलके में खड़ा था इच्छा-मार्ग
तिश्नगी किस चीज की थी
बुझी किस चीज से!
जब सोचा
याद आए पानी के कई चेहरे
बदलते मौसमों के रंग
वे जरूरतें भी याद आर्इं जिन्हें लांघ न सका