जीवन और कामनाएं परस्पर पूरक हैं। जीवन बिना कामनाओं के खोखला हो जाता है। इन कामनाओं की पूर्ति के उपरांत ही मन प्रसन्न होता है एवं इन्हें पूरा करने के लिए ही मनुष्य अपने जीवन में क्रियारत रहता है। माण्डूकोपनिषद में लिखा है कि मनुष्य जिन-जिन लोकों के विषय में सोचता है, शुद्ध हृदय से जिन-जिन कामनाओं की इच्छा करता है, उन लोकों को पाता है और इच्छित भोग की प्राप्ति करता है। लेकिन कामनाओं को लेकर आप सबके मन में एक दुविधा है। एक संघर्ष चल रहा है आपके अंतर्मन में क्योंकि कामनाओं को गलत समझा गया है। कभी इसे माया तो कभी मन का जंजाल कहा गया है।
इतना तो स्पष्ट है कि सृष्टि के मूल में कामनाएं कार्य कर रही हैं। बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि सृष्टि के आरंभ में ब्रह्म अकेला था। फिर उसके मन में यह कामना जगी कि उसमें वृद्धि हो। इस परिकल्पना के साथ ही एक से अनेक की रचना हुई। जाहिर है अगर सभी की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई तो उसका अंश हम सभी में अभिव्यक्त होता है जिसका उद्घोष ‘अहं ब्रह्मास्मि’ है।
अगर हम सबमें ब्रह्म का नाद है तो बढ़ने या विकसित होने की कामना करना हमारा नैसर्गिक स्वभाव हुआ। आधुनिक मनोविज्ञान भी मानता है कि हम जैसा सोचते हैं वैसे बन जाते हैं। कामनाओं को न तो नकारा जा सकता है, न ही इनसे भागा जा सकता है। जब तक ये पूर्ण नहीं होती हैं, मनुष्य इनसे बंधा हुआ रहता है।
समझने का प्रयास करते हैं कि मनुष्य के मन में किस प्रकार की कामनाएं कार्य करती हैं। प्रारंभिक कामना तो प्राण रक्षा है। इसे ही जिजीविषा कहा गया है जो हमें विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष करने की शक्ति देता है। दूसरा, हर मनुष्य चाहता है कि उसका घर-संसार बसे और अधिक से अधिक धन उपार्जित करे जिससे वह अपने आत्मीयों को यथोचित सुख-सुविधाएं उपलब्ध करा सके। धन के उपार्जन के लिए मनुष्य कर्म या क्रिया करने को तत्पर रहता है। कामना शब्द पर ध्यान देंगे तो इसमें काम और मन दोनों ही संयुक्त हैं। इससे भी अधिक रुचिकर तथ्य है कि ‘काम’, क्रिया और प्रेम दोनों को निरूपित करता है एवं इन दोनों का क्षेत्र मनुष्य का मन है। काम करने की प्रेरणा, लगन और उत्साह मन में आत्मीयों के प्रति प्रेम-वश उपजती है, जिसे सांसारिक भाषा में माया कहते हैं।
ऐसे में कामनाएं समुद्र की लहरों की भांति एक के बाद एक उठती रहती हैं। ये मन को संतप्त कर देती हैं क्योंकि ये आपको एक अंतहीन सफर पर ले चलती हैं। इसमें दृष्टि बाह्य होती है और आप संतोष से कोसों दूर होते हैं। इस असंतोष में आप सही-गलत का भेद भूल जाते हैं। कई बार आप उन कार्यों को भी करते हैं जिन्हें करने की मन गवाही नहीं देता। संभवतः यही कारण है कि कामनाएं दूषित हो जाती हैं। उसे परिष्कृत करने के लिए आप कामनाओं के मौलिक स्वभाव को अपना लीजिए।
कामनाएं आपको विराट करने के लिए हैं क्योंकि प्रकृति में क्षुद्रता का कोई स्थान नहीं है। एक नन्हा सा बीज विशाल पेड़ बनता है और एक क्षीण जलधार सागर में मिलकर प्रशांत बन जाती है। अपने लिए शुभ या अच्छा सोचना और शुभ की कामना द्वारा स्वयं को आत्म रूपांतरित करने में ही कामनाओं की साथर्कता है।