इसे आप चाहे तो कांग्रेस का मानसिक दिवालियापन कह सकते हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मध्यप्रदेश में भी अपने चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत मंदिरों की यात्रा से करेंगे। लोगों ने राहुल का यह बदला हुआ स्वरूप गुजरात से देखना शुरू किया था जो व्हाया कर्नाटक के रास्ते होते अब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और आगे राजस्थान तक जाएगा। मध्यप्रदेश के नक्शे को सामने बिछाकर तमाम धार्मिक स्थलों की खोजखबर कांग्रेस नेतृत्व ने निकाल ली है। उज्जैन के महाकाल मंदिर से लेकर दतिया में पीताम्बरा पीठ तक, मैहर में शारदा माता मंदिर से लेकर अमरकंटक तक। शायद इस समय कांग्रेस चुनावी राजनीति से ज्यादा ध्यान मंदिरों की तलाश में बिता रही है।
बातें छोटी हैं पर शायद कांगे्रस नेतृत्व को समझ में नहीं आ रही है। गुजरात में कांग्रेस यदि लड़ाई में मौजूद नजर आई थी तो कारण निश्चित रूप से राहुल का मंदिरों में पूजा पाठ से जुड़ा नहीं था। न वहां राहुल का कोई करिश्मा था। न कांग्र्रेस के पास गुजरात में कोई धारदार नेतृत्व था। शंकर सिंह वाघेला ने चुनाव के पहले ही कांग्रेस का साथ छोड़ दिया था। कारण चाहे जो रहा हो, कांग्रेस उनको एन वक्त उस समय संभालने में असफल रही जब वाघेला की कांग्रेस को जरूरत थी। अहमद पटेल कभी गुजरात में जमीनी नेता हुआ करते होंगे लेकिन सालों से वे दिल्ली के खास होकर गुजरात की जमीन को खो चुके थे। दिल्ली में वे कांग्रेस के आधारहीन अंचम्भों में शामिल नेताओं के शीर्ष पर मौजूद होने चाहिए।
गुजरात में यदि भाजपा को टक्कर देने की स्थितियां बनी तो वो थी जातिवादी और आरक्षण की राजनीति। तीन नए लड़कों ने अलग-अलग कारणों से गुजरात की राजनीतिक परिस्थितियों को प्रभावित किया। पाटीदार आरक्षण आंदोलन में उभरे हार्दिक पटेल ने, ऊना की घटनाओं के बाद सामने आए जिग्नेश मेवानी ने और पिछड़ों के हक की लड़ाई लड़ने सामने आए अल्पेश ठाकोर ने। इन तीनों को जनसमर्थन मिला और गुजरात की भाजपा सरकार परिस्थितियों को ठीक से भांप नहीं पाई। मोदी और अमित शाह पूरा जोर नहीं लगाते तो शायद गुजरात भाजपा के हाथ से निकल जाता। गुजरात देश के उन राज्यों में शामिल है जहां कांग्रेस और भाजपा की सीधी लड़ाई है। तीसरी और कोई राजनीतिक ताकत गुजरात में प्रभावी रूप से मौजूद नहीं है। इसके बावजूद बाईस सालों की भाजपा सरकार के खिलाफ जो स्वाभाविक एंटी इनकम्बेंसी मौजूद रही होगी, उसे कांग्रेस का राज्य नेतृत्व या शीर्ष नेतृत्व उभार नहीं सका। उसे उभारा राजनीति में एकदम नए इन तीन लड़कों ने। इसलिए गुजरात में भाजपा को टक्कर देने का काम कांग्रेस या राहुल के खाते में नहीं, इन तीन युवाओं के खाते में दर्ज होना चाहिए। लिहाजा, भाजपा यहां अपनी प्रतिष्ठा बचाने में कामयाब हो गई और अब जाहिर है वो गुजरात में लगातार 27 साल शासन कर पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट शासन का रिकार्ड तोड़ रही है।
गुजरात की लड़ाई में थोड़ा ऊपर आई कांग्र्रेस को लगा शायद मंदिरों में भटकना कांग्रेसाध्यक्ष को रास आ रहा है सो कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में भी तमाम मठ मंदिरों से लेकर जातिवाद को उभारने तक की तमाम कोशिशें कांग्रेस ने कर ली। बावजूद इसके भाजपा बस सत्ता से इंच भर पीछे रह गई। जनता दल सेक्युलर को मिली कुछ सीटों के बाद कांग्रेस ने भाजपा के बताए रास्तों पर चलकर ही पीछे के रास्ते से कर्नाटक की सत्त्ता में हिस्सेदारी हासिल कर ली। पर उसे कांग्रेस की जीत मानना, कांग्रेस के लिए ही एक धोखा साबित होगा। क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद अगर कर्नाटक में अगर कांग्रेस धरातल पर जाने से बची तो उसके पीछे राहुल गांधी का मंदिरों में माथा टेकना नहीं बल्कि सिद्धरमैया की वो कोशिशें थी जिनमें उन्होंने कर्नाटक के प्रभावी समुदायों को अलग तरीकों से लुभाने की कोशिशें की थीं।
शायद कांग्रेस को एक बात समझ में आ रही है कि जहां उसकी भाजपा से सीधी लड़ाई है, वहां के मुस्लिम मतदाताओं के पास उसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है, लिहाजा मुस्लिमों की उपेक्षा करके भी यदि कांग्र्रेस अध्यक्ष मंदिरों की खाक छानते रहेंगे तो भी मुस्लिमों को जाना कहां है? इसमें हकीकत हो सकती है। लेकिन इसमें खतरा एक यह भी है कि किस्सा, न खुदा ही मिला न बिसाले सनम-न इधर के रहे, न उधर के रहे, जैसा हो सकता है। आखिर अब हिन्दू भला कांग्रेस पर क्यों भरोसा करने लगेगा। किसी मंदिर में मत्था टेकने से, किसी मठ के स्वामी के दर्शन करने से क्या हिन्दू उन तथ्यों की अनदेखी कर सकता है, जब कांग्रेस ने प्रो मुस्लिम राजनीति को चुन लिया था। एक जमाना वो था जब कांग्र्रेस को हिन्दू और मुसलमान दोनों का समर्थन था। वो इंदिरा गांधी का दौर था। राम मंदिर आंदोलन के बाद से हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी कांग्रेस से विलग हुआ है, उसका भरोसा भी कांग्रेस से हटा है। इसलिए जहां उसे कांग्रेस से बेहतर विकल्प मिलें, वहां उसने कांग्रेस को पूरी तरह त्याग दिया है। उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल इसके बड़े उदाहरण हैं।
राहुल गांधी के पिता राजीव गांधी के कांग्रेस की कमान संभालने के बाद से ही कांग्र्रेस अपरिपक्व राजनीति के रास्तों पर चलती हुई लोकसभा में चवालीस सीटों की अधोगति को प्राप्त हुई तो देश के कुल जमा दो चार राज्यों की सत्ता तक सिमट कर रह गई है। लेकिन लगता है कांगे्रस में अब गलतियों से सबक लेने का माद्दा नहीं बचा है। अपरिपक्व नेतृत्व के चलते अब कांग्रेस में परिपक्व नेतृत्व का भारी अभाव है या फिर अब उसकी पूछपरख नहीं है। क्योंकि किसी ने शायद ठीक कहा है, किसी ओर को बदलने की कोशिश करना मुर्खता है, क्योंकि लोग किसी के कहने से नहीं बदलते हैं, लोग तभी बदलते हैं जब वो ऐसा चाहते हैं। तो इस समय कहना भी एक मुर्खता ही होगा कि राहुल गांधी के मंंदिरों में माथा टेक लेने भर से कोई साफ्ट हिन्दूत्व पैदा नहीं हो जाएगा। अब जब एक बार हिन्दुओं को अपनी ताकत पता चल ही गई है तो लगता नहीं कि राहुल गांधी इसे निकट भविष्य में बदल पाएंगे। अच्छा और सब्र का काम यह होगा कि वे पहले कांग्रेस को बदलने की कोशिश कर लें